जनाब के. के. सिंह "मयंक" अकबराबादी की पैदाइश सन् 1944 ई. में उत्तर प्रदेश के जिला मथुरा में हुई । उन्होंने अपनी तालीम आगरा (अकबराबाद) में हासिल की । सन् 1969 ई. में उन्होंने रेलवे विभाग में बतौर अफसर अपनी नौकरी की शुरुआत की। बृज भूमि से ताल्लुक होने की वजह से बचपन ही से उन्हें कविताएं, गीत, वगैरह लिखने का शौक रहा। आला अफसर होने की वजह से हिंदुस्तान के मुख्तलिफ सूबों और शहरों में उन्हें रहने और वहाँ की जिंदगी को क़रीब से देखने क मौका हासिल हुआ। इस दौरान सन् 1980 ई. में रतलाम पहुँचने के बाद उर्दू शायरी से लगाव पैदा हुआ और तब से आज तक अदब की खिदमत कर रहे हैं।
पिछ्ले 33 वर्षो में उन्होंने बेशुमार भजन, हम्द, नात, मनकबत और ग़जल लिखे और अपनी मुसलसल मशक्कत की बदौलत मुमताज़ शायरों में अपनी एक जगह बना ली। आपके कलाम को हिंदुस्तान के जाने माने कलाकारों जैसे अहमद हुसैन, मोहम्मद हुसैन, राजेंद्र मेहता, नीना मेहता, रामकुमार शंकर, सुधीर नारायन, शंकर शंभू, शमीम-नईम अजमेरी, सईद फरीद साबरी, अज़ीज़ नाज़ाँ, पंकज उधास, रूप कुमार राठौर ने गाया जिसको सभी खासोआम ने बहुत-बहुत पसंद किया । दूरदर्शन, टी वी सीरियलों जैसे 'लहू के फूल' और सी डी के ज़रिये उनका कलाम आवाम तक पहुंच रहा है ।
मयंक एक हिंदी भाषी हैं, लेकिन उन्होंने हिंदी और उर्दू दोंनो ज़ुबानों में काम किया है । अब तक उनकी 23 किताबें/रिसाले आये हैं, जो हिंदी, उर्दू या दोनों ज़बानों में हैं - कुछ गीत अनाम के नाम, कलाम-ए-मयंक, मयंक के गीत और गीतिकायें, तन्हाइयां, वंदे मातरम्, गुल्दस्ता, दीवान-ए-मयंक (उर्दु और हिंदी), मयंक भजनावली, कायनात्, उर्दू काव्य श्री (कन्नड़), जज़्ब-ए-इश्क़, मयंक की गज़लें, जुनून, सिम्त काशी से चला, नज़राना-ए-अक़ीदत, करम-ब-करम, लम्हे-लम्हे, कारवां-ए-गज़ल, मयंक की शायरी, हम भटकते रहे रौशनी के लिये, गीत संकलन, भीम के सपनों वाला हिंदोस्तान । मयंक आकाशवाणी और दूरदर्शन के मान्य शायर हैं ।
मयंक का कलाम देश-भक्ति और कौमी एकता का पैगाम देता है। वे उन शायरों में से हैं, जिन्होनें 'वंदे मातरम्' नाम से देश-भक्ति पर पूरा मजमुआ लिखा है । गैर-मुस्लिम होते हुए भी उनके हम्द, नात, मनक़बत और सलाम के मजमुए शाया हुए हैं। मयंक तरन्नुम और तहत दोनों तरीक़ों से पढ़्ते हैं । हिंदोस्तान के हर कोने में उन्होनें अपना कलाम पढ़ा है । ग़ालिब के बाद उर्दू शायरी की तारीख़ में मयंक उन चंद शायरों में से हैं, जिन्होनें अपनी गज़लों का मजमुआ हरफे तहज़्ज़ी के एतबार से तरतीबवार गज़लें लिख कर दीवान की शक्ल में शाया करवाया है और दीवान लिखने के रवायत को आगे बढाया है । उनके चंद शेर पेश हैं -
1. हो जहां शिव की अज़ानें और खुदा की आरती
वो इबादतगाह हिंदोस्तान होना चाहिये ।
2. ख़ुदा का शुक्र है हम हिंदुओं में
कोई शब्बीर का क़ातिल नहीं है ।
3. कहो तो एक गुर्दा बेच डालूं
बहुत महंगी चिता की लकडियां हैं ।